Ghazal

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रोज़ आकर जो ख़्वाबों मे सताया तुम ने
नींद आंखों से चुराकर क्यों जगाया तुम ने

बुग़ज़ सीने में रखा लब पे तबससुम रक्खा
दाग़ दिल पर ऐ मेहरबां क्यों लगाया तुम ने

हिज्र का ग़म तो गवारा था सितम गर मुझको
वस्ल आई तो रक़ीबों को बुलाया तुम ने

मिस्ल आहू मे भटकता रहा सेहरा में
पास आई न कभी मुझको बुलाया तुम ने

नाम धरता हे ज़माना भी ख़ता पर मेरी
बात अदना थी ज़माने को बताया तुम ने

रोज़ असलम भी ख़्वाबों में दिखा करता हे
हाले दिल यह यहाॅ मुझको सुनाया तुम ने

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