जीवन और आचरण
जीवन हमारा है ।
किन्तु हम कभी इस सुंदर, अमूल्य सत्य का साक्षात्कार करते ही नहीं ।
हम तो यही सोचते रहते हैं – यह घर हमारा है । यह धन हमारा है, यह तन हमारा है । हम इस घर को तिमंजिला बनाएगे और अधिक लम्बा-चौड़ा फैलाएंगे, चाहे उसके लिए पड़ोसी की जमीन हड़पनी पड़ जाए । हम अपने धन को दुगुना-चौगुना, हजार गुना बढाएंगे – चाहे उसके लिए कितने ही निर्धनों को भूखा मारना पड़े । हम अपने तन को सुंदर बनाएंगे । क्रीम लगाएंगे, नए फैशन के बाल कटाएंगे, पाउडर लिपस्टिक पोतेगें – चाहे उससे हमारा स्वास्थ्य चौपट हो जाए ।
हम यह सब करेंगे, केवल यह विचार कभी नहीं करेंगे कि जीवन हमारा है ।
इतना मूल्यवान जीवन, ऐसा देव-दुर्लभ मानव-भव क्षण-क्षण व्यर्थ चला जा रहा है और हम अज्ञान की काली, गहरी निद्रा में सोए पड़े है ।
क्षण-मात्र का भी विलम्ब किए बिना हमें जागृत हो जाना चाहिए और खूब अच्छी तरह से समझ लेना चाहिए कि अपने इस जीवन का निर्माण भी हम ही कर सकते हैं और विनाश भी । किसी अन्य को कोई दोष देना निरर्थक है । हां, हमारे जीवन-निर्वाण में सहायक हो सकते हैं – देव, गुरु, धर्म ।
किन्तु मूल में पुरषार्थ तो हमें ही करना होगा । देव-गुरु-धर्म हमें मार्ग बताते हैं । लेकिन उस मार्ग पर चलना तो हमें ही है । देव, गुरु, धर्म हमारे मार्ग पर, अज्ञान के अंधकार से भरे हुए, हमारे मार्ग पर ज्ञान का दीपक धरकर उसे प्रकाशित कर देते हैं । अब उस प्रकाश से आलोकित पथ पर दृढ़ता-पूर्वक कदम तो हमें ही बढ़ाने हैं न ?
धर्मशास्त्रों में कहा गया है –
काम भोगों में लिप्त रहने वाले प्राणी को कभी सुख की प्राप्ति नहीं हो सकती । तप के धनी, काम भोगों से विरक्त, शील गुण से सम्पन्न साधुजन ही शक्ति और सुख प्राप्त कर सकते हैं ।
जीवन को सदाचरण के मार्ग पर आगे बढ़कर उत्कृष्ट बनाने में सत्संगति बहुत सहायक सिद्ध होती है । संगति का प्रभाव सभी पर अवश्यमेव पड़ता है । मानव जैसी संगति में रहता है, वैसा ही उसका जीवन भी बन जाता है । यदि बाल्यकाल में बालकों को, यौवन काल में युवकों को अच्छी संगति मिले तो अवश्य ही वे सदाचरण के शुभ मार्ग पर ही चलेंगे तथा वें विनाश से बचे रहेंगे । किन्तु यदि इसके विपरीत वे कुसंगति में पड़ गए तो चाहे जैसे उत्तम कुल में वे जन्मे हों, उन पर कुसंगति का विनाशकारी प्रभाव अवश्य पड़ेगा और उनका जीवन नष्ट हो जाएगा । कुसंगति को इसलिए काजल की कोठारी कहा गया है । ऐसी काजल की कोठारी में जो भी व्यक्ति जाएगा वह एक-न-एक काजल की काली रेख तो लगवाकर ही आएगा, फिर वह चाहे जितना चतुर हो –
अत: --
भले ही विद्यावान हो, किन्तु यदि व्यक्ति दुर्जन हो तो उसकी संगति कभी नहीं करनी चाहिए, उससे तो दूर से ही नमस्कार करना ही भला ।
अतएव सदाचार को जीवन-निर्माण का सोपान मानकर चलना चाहिए । सदाचार की सीढियाँ चढ़ते जाइए, आप जीवन की उत्कृष्टता के शीर्ष पर अवश्य पहुँच जाएंगे । इसके विपरीत दुराचरण के गर्त्त में उतरिए, आपका जीवन रसातल में आपको पहुंचा ही देगा ।
चुनाव आपको और हमको ही करना है ।
परम् तीर्थंकर प्रभु ने फरमाया है –
निग्रंथ जो हैं, वे मैथुन का वर्जन करते हैं, क्योंकि मैथुन महादोष है, विनाश को आमंत्रण देने वाला है । इन्द्रियों का असंयम अधर्म का मूल है । अब्रह्मचर्य दोषों का समुदाय है । अत: जीवन-निर्माण के इच्छुक साधक को अब्रह्मचर्य का परित्याग करना चाहिए ।
ब्रह्मचर्य का पालन कैसे हो ? संयम के आश्रय से । संयमी जीवन व्यतीत करने से ही ब्रह्मचर्य का पालन किया जा सकता है । मन में किसी भी प्रकार का विकार आने ही नहीं देना चाहिए । चरित्र दे पावन प्रासाद को खड़ा करने के लिए संयम की आधारशिला को स्थापित करना अनिवार्य है ।
आज के लिए यही समाप्त कर, अगली पोस्ट में आगे बढ़ेगे और जीवन और आचरण के बारे में जानेगें ।