कल जो आत्मा की तीन प्रकार की परिणति बताई थी, अब उसके आगे से शुरू करते है -
बहिरात्मा वह है जो देहाध्यास में रमण कर रही है, जो देह दे सुख में सुख और देह के दुःख में दुःख मानती है । जिसकी समझ में देह से अलग आत्मा की कोई सत्ता नहीं है । जब तक आत्मा की ऐसी अज्ञानमय और विभ्रमयुक्त परिणति बनी रहती है, तब तक उसकी बहिरात्मदशा रहती है ।
परन्तु जब विशिष्ट ज्ञानियों के सम्पर्क से अथवा अपनी निज की निर्मल मति से आत्मा को अपने पृथक् अस्तित्व का प्रतिभास हो जाता है और यह बात समझ में आ जाती है कि जिस प्रकार म्यान और तलवार एक नहीं है, उसी प्रकार आत्मा और शरीर भी एक नहीं है, तब अंतरात्मदशा प्रकट होती है । इस दशा के प्रकट होने पर जिव बाह्य-पदार्थो के संसर्ग में रहता हुआ भी द्रष्टा वन कर रहता है । वह उन पदार्थों में न अह्मबुद्धि रखता है और न ममबुद्धि ।
नाटकशाला में नाटक देखने जाते है । उसमे अनेक पात्र अभिनय करने के लिए रंगभूमि में आते है । कोई राजा बन कर आता है और वही दुसरे क्षण दरिद्र का रुपे धारण कर के आ जाता है । दर्शकों को इस बात से हर्ष-विषाद नहीं होता कि एक गरीब अमीर बन गया या अमीर गरीब बन गया है । अभिनेता स्वयं भी अपने को राजा और दरिद्र का अभिनेता ही समझता है । वह राजा से दरिद्र बन जाने के कारण दुखी नहीं होता है । वह जानता है कि राजा का अभिनय करने से मुझे राजसी वैभव नहीं मिल जायेगा और दरिद्र का अभिनय करने से मै भूखा नहीं मर जाऊंगा । मै कुछ भी अभिनय करूँ, मेरी असली स्थिति में इससे कोई अन्तर नहीं पड़ने वाला है ।
इसी प्रकार जो जीव संसार को रंगशाला समझ कर अपने आपको अभिनेता समझता है, वह किसी भी बाह्य दशा में हर्ष-विषाद का अनुभव नहीं करता । वह जानता है कि पौद्गलिक पदार्थों के संयोग अथवा वियोग से मेरा कुछ बनता-बिगड़ता नहीं है । इससे मेरी आत्मा की मुलभूत स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं होता ।
राजा हरीशचंद्र एक समय राजा थे । संसार के सारे सुख वैभव उनके चरण में थे । किन्तु एक कुचक्र चला और उन्हें चांडाल का दास बनना पड़ा । मगर इससे उनकी आत्मा का क्या बिगड़ा ? आत्मा के स्वरुप को भलीभांति समझ जाने वाला जीव संसार की किसी भी ऊँची-नीची अवस्था में तटस्थ ही रहता है । आसक्ति उसे स्पर्श नहीं करती । वह पुद्गलों का दास बनकर नहीं रहता है । ऐसा जीव अन्तरात्मा कहलाता है ।
अन्तरात्मा होते ही जीव सम्यग्द्रष्टि बन जाता है । अथवा यों कहे कि सम्यग्द्रष्टि का उदभव होते ही अंतरात्मदशा प्रकट होती है । सम्यग्द्रष्टि प्राप्त होने पर जीव मोक्ष-मार्ग का पथिक बन जाता है । उसका परमात्मा की तरफ जाने का रास्ता साफ हो जाता है ।
कामदेव श्रावक के पास देवता पिशाच का रूप धारण कर के बोले तू अपने धर्म का परित्याग कर दे, अन्यथा खड्ग से टुकड़े-टुकड़े कर दुँगा । परन्तु कामदेव का एक रोम भी कम्पित न हुआ । वह सोचने लगे – यह टुकड़े-टुकड़े करने की धमकी दे रहा है, पर किसके टुकड़े-टुकड़े कर देगा ? टुकड़े शरीर के हो सकते है । पुद्गल, पुद्गल को ही काट सकता है । इसकी यह लम्बी और तीखी तलवार मोटे शरीर पर चल सकती है, किन्तु शरीर तो टुकड़ा-टुकड़ा ही है । न जाने कितने पुद्गल परमाणुओं से बना है । इसके टुकड़े कर देगा तो मेरा क्या बिगड़ जायेगा ? मै कहाँ इस काया के पिंजड़े में सदैव रहने की सोचता हूँ ?
मैं चैतन्यघन आत्मा हूँ, अमूर्तिक हूँ, अरुपी हूँ, अनाकार हूँ । पुद्गल मेरा छेदन-भेदन नहीं कर सकते । ठीक ही कहा है –
इस आत्मा को न शस्त्र काट सकता है, न आग जला सकती है, न पानी गला सकता है और न पवन सोख सकता है ।
इस प्रकार विचार कर कामदेव के मन में लेशमात्र भी भय का संचार नहीं हुआ । यह है अन्तरात्मा जीव की द्रष्टि । इस द्रष्टि के प्राप्त हो जाने पर चाहे चक्रवर्ती का राज्य मिल जाए, चाहे कोई आग में भुन दे । किसी भी दशा में हर्ष-विषाद नहीं होता है ।
बहिरात्मद्रष्टि का परित्याग कर के अन्तरात्मा द्रष्टि प्रकट करना और भोतिक पदार्थो की शक्ति पर भरोसा न कर के प्रभु को ही अशरण-शरण मानना परमात्मा को आत्मसमर्पण करना कहलाता है । बहिरात्मा को त्यागे बिना और अन्तरात्मा बने बिना आत्मा परमात्म-समर्पित नहीं तो सकती । अतएव बहिरात्मा का त्याग कर के, अन्तरात्मा में स्थित होना चाहिए और परमात्मा का ध्यान करना चाहिए । परमात्मा का ध्यान करते-करते वह समय आ जायेगा कि जो स्वरूप परमात्मा का है, वही आत्मा का बन जाये ।
इस प्रकार आत्मसमर्पण करने से देह और जीव को एक गिन कर, देह दे सुख में सुखी और दुःख में दुखी होने का मन का भ्रम मिट जायेगा । इस भरम के मिटते ही परम तत्व को महान सम्पति प्राप्त होगी और आत्मा परमानन्द के रस में निमग्न हो जाएगी । संसार के सब सुख-दुःख दूर होकर शुद्ध शाश्वत सुख प्राप्त होगा ।