जैन दर्शन : परमात्मपद-प्राप्ति की सामग्री - भाग # 2

दूसरी वस्तु है – अदेव्ष । भगवान का नाम लेते-लेते अरुचि न होना अदेव्ष है । अरुचि होना देव्ष है । उदाहरणार्थ कई लोग दो-चार सामायिक कर के ऊब जाते है और कहने लगते हैं – ‘बस, अब मन नहीं लगता !’ वे सामायिक के बदले गप्पें हांकते हैं, किसी की निंदा करते हैं, विकथा करते हैं और इन कामों में पूरी रात बिता देते हैं । इस प्रकार धर्म-कार्य में अरुचि होंना देव्ष है और इस देव्ष या अरुचि का हट जाना एवं धर्मक्रिया में रस होना, आनंदानुभव होना अदेव्ष है ।

तीसरी आवश्यक शर्त ‘अखेद‘ है । अदेव्ष और अखेद भिन्न-भिन्न गुण हैं । रूचि होने पर भी कभी-कभी खेद या थकावट आ जाती है । भगवदभक्ति में थकावट न होना अखेद है ।
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जिसकी अन्तरात्मा में से यह तीनों दोष दूर हो जाते हैं, उसी का आध्यात्मिक उत्थान होता है ।
किसी कवि ने कहा है :-

चरमावर्त्त हो चरण करण तथा रे,

भवपरिणति परिपाक ।

इस कथन में सिद्धान्त का गूढ़ रहस्य भर दिया गया है । जिन्होंने शास्त्रों का गहरा अध्ययन किया है, वे ‘चरमावर्त्त’ को समझ सकते हैं । अतएव इसका जरा स्पष्टीकरण कर देना आवश्यक है ।

शास्त्र में काल को चक्र की उपमा दी गई है । उस कालचक्र के दो विभाग हैं – उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी । दोनों ही काल दश-दश कोड़ा-कोड़ी सागरोपम काल व्यतीत हो जाने पर एक कालचक्र कहलाता है । अब यह भी देख लेना आवश्यक है कि सागरोपम किसे कहते हैं ?

युगलिया जीव का केश हमारे केश की अपेक्षा बहुत सूक्ष्म होता है । हम लोगों का एक केश और युगलिया के चार हजार छयानवें केश बराबर हैं । युगलिया जीव के इन केशों के सूक्ष्मतम भाग करके, चार कोस लम्बे और इतने ही चौड़े एवं गहरे एक कूप में ठांस-ठांस कर भर दिये जाय । उन्हें इस प्रकार ठीक कर मजबूत भर दिया जाये कि चक्रवर्ती की सेना ऊपर से गुजर जाने पर भी दबे नहीं । मुसलाधार पानी बरसे और गंगा-सिन्धु जैसी नदियां उसके ऊपर से बह जाएं, फिर भी एक भी बाल का टुकड़ा बह न सके । संवर्तक जैसी प्रचंड वायु भी बहे, लेकिन उसका एक भी खंड न उड़ सके । इस प्रकार ठोक-ठोक कर वह कूप बालों से भरा गया हो । तत्पश्चात सौ-सौ वर्ष में एक-एक केश उस कूप में से निकाला जाये । इस तरह निकलने में कितना समय व्यतीत हो जायगा ? आप उसे अंकों से नहीं कह सकते और न लिखकर दिखला सकते हैं । वह काल लौकिक गणना से परे है । इसी कारण उसे उपमा देकर समझाया गया है ।
तो सौ-सौ वर्षों में केशों का एक-एक टुकड़ा निकालते-निकालते जितना कल व्यतीत होता है, उतना काल एक पल्योपम काल कहलाता है ।

करोड़ के साथ करोड़ का गुणाकार करने पर जो संख्या लब्ध होती है, उसे कोड़ाकोड़ी कहते हैं ।

दस कोड़ाकोड़ी पल्योपम काल बीतने पर एक सागरोपम होता है । ऐसे बीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम जब समाप्त हो जाते है, तब एक कालचक्र अर्थात् एक उत्सर्पिणीकाल और एक अवसर्पिणीकाल की समाप्ति होती है ।

यद्धपि सागरोपम और पल्योपम का कालमान लम्बा है, फिर भी उसमें कोई असंभव जैसी बात नहीं समझना चाहिए । काल सदा से है और सदा रहेगा । कालद्र्व्य अनादी और अनन्त है । किसी ने ठीक ही कहा है –

कालो न यातो वयमेव याता: ।

हम बीत जाते है, जगत के समस्त पदार्थ बीत जाते हैं फिर भी काल ज्यों का त्यों बना है । यद्धपि हम व्यवहार में कहते हैं कि ‘इतना काल व्यतीत हो गया’ पर वास्तव में व्यतीत होते हैं हम लोग ! काल तो अनादि काल से है और अनन्त काल तक बना ही रहेगा ।

हां, तो दस कोड़ाकोड़ी सागरोपम का एक उत्सर्पिणी-काल और दस कोड़ाकोड़ी सागरोपम का ही एक अवसर्पिणी-काल होता है । दोनों मिलकर एक कालचक्र होता है, ऐसे-ऐसे अनन्त कालचक्र जब बीत जाते हैं, तब एक पुद्गल परावर्त्तन होता है ।

आज परमात्मपद प्राप्ति की सामग्री का दूसरा अध्धाय हुआ, अब अगला तीसरा व अंतिम अध्धाय होगा ।

पहले अध्धाय का जुडाव है :- https://busy.org/@mehta/27w7ww

परमात्मपद-प्राप्ति की सामग्री की Steeming

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