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कपोत

ईश्वरस्वरूप पक्षी की रहस्यमयी सुंदरता का रहस्य अगर किसी को ज्ञात हो तो मुझे बतलाया जाए।" [ "ऋग्वेद" ]

संध्या को जब मैंने कंकरीट के फ़र्श पर कपोत के शव को देखा, तब जाकर मुझे पहली बार अनुभव हुआ कि कोई कपोत इतना भी अचल हो सकता है!

पक्षियों में कितनी तो चपल चेतना होती है! एक साथ जैसे आदिम भय, राग, लालसा, तृषा, और प्रस्तुत के प्रति सर्वोत्सुक संज्ञा का सम्मिलित भाव.

मैंने कभी किसी पक्षी को निश्चल, अडोल नहीं देखा, रमाये समाधि. उसकी आत्मा की प्राण-तुला सदैव दोलती ही पाई.

सोते होंगे अरण्य के गुहांधकार में आंखें मूंदे पक्षी पंक्तिबद्ध. मैंने मावस की रात्रि का निविड़ निर्जन ही कहां देखा?

और तब, यह दुर्दैव कि सूर्य-विषाद की करुण प्रभामयी संध्या में उस कपोत को देखा मूंदे नैन.

निद्रा नहीं निष्प्राण का नेत्र निमीलन!

वक्ष में छेद था. जाने किसने किया होगा आखेट, किंतु निष्प्रयोज्य ही किया.

वायु के वेग से अब भी यत्किंचित कांप उठते थे पंख, जिन्होंने कभी वायु के रथ को सूर्य के अश्वों की भांति साधा था.

विदा के शोक से पहले ही व्याकुल मन उसे देख निरे उद्वेग से मंज गया.

जिस देह में चेतना की चपल द्युति थी, देखो तो कैसी पड़ी है निश्चल! हर विदा वैसी ही हृदयविदारक होती है.

मनुज के प्राण छूटें तो कहते हैं उड़ गया पखेरू. पखेरू के प्राण छूटें तो भला क्या कहेंगे?

मनुज की देह मुक्त हो तो कहते हैं हो गया निर्भार. पखेरू की देह मुक्त हो तब कौन सी काव्ययुक्ति?

जिसके प्राण ही नहीं देह भी पखेरू हो, हो ना हो, मृत्यु के पश्चात वह बन जाएगा निकलंक धूप का एक तैरता हुआ पंख!

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